लिपि से नहीं बोलने से बचेगी रं ल्यो, JNU की असिस्टेंट प्रोफेसर संदेशा विलुप्त होती बोली पर कर रही हैं काम
किसी भी व्यक्ति की पहचान उसकी बोली और संस्कृति है। यही संस्कृति उसे जड़ों से जोड़े रखने को प्रेरित करने के साथ ही संस्कारों की सीख देती है। मातृभाषा के प्रति लगाव की यह प्रवृत्ति अपनापन महसूस कराती है। यही नहीं, जीवन में हर परिस्थिति का सामना करने की आंतरिक शक्ति भी देती है। आज भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में इस विषय पर बहस तेज हो गई हैं। ऐसा इसलिए कि मातृभाषाएं तेजी से विलुप्त होने लगी हैं।
रं बोली पर कर रहीं काम
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भाषाई सशक्तीकरण प्रकोष्ठ की असिस्टेंट प्रोफेसर डा. संदेशा रायपा गर्ब्याल अपनी रं ल्यो (रं बोली) को लेकर विशेष प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं। यह प्रोजेक्ट जेएनयू व ओएनजीसी के सहयोग से चल रहा है। वह कहती हैं, भाषा लिपि से बचती तो संस्कृत भाषा भी आज कहीं आगे होती। सही बात यह है कि भाषा लिपि के बजाय नियमित बोलने से बचती है।
नई पीढ़ी का मातृभाषा के प्रति प्रेम जरूरी
दुबई में पैदा हुई बुदी निवासी डा. संदेशा का ससुराल गर्ब्यांग में हैं और नानी का घर कुटी में। रं समाज के आयोजन को पहुंची डा. संदेशा वनांचल बारात घर परिसर में व्यास घाटी के गांवों की तस्वीर को देखते हुए कहती हैं, इन गांवों को प्रकृति का उपहार है। इनमें हमारी संस्कृति रची-बसी है। अपनी मातृभाषा के प्रति नई पीढ़ी को प्रेरित करना जरूरी है। हमें अपनी मातृभाषा में बोलने में शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए।
जेएनयू में पढ़ाने वाली रं समाज की पहली महिला
डा. संदेशा रं समाज से पहली महिला हैं, जिनका चयन जेएनयू में हुआ है। वह भाषा के क्षेत्र के काम कर रही हैं और कहती हैं, दुनिया में तमाम मातृभाषाओं की तरह हमारी मातृभाषा भी सो रही है। इसे जगाने के लिए हम सभी को जागना होगा।