जंगल की बात : रंग-विरंगे पक्षियों का मोहक संसार, इनके अवलोकन से भी स्‍वरोजगार

जंगल की बात : रंग-विरंगे पक्षियों का मोहक संसार, इनके अवलोकन से भी स्‍वरोजगार

रंग-विरंगे पक्षियों का मोहक संसार और उनका मधुर कलरव भला किसे अच्छा नहीं लगता। इस दृष्टिकोण से देखें तो नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण उत्तराखंड बेहद धनी है। देशभर में पाई जाने वाली पक्षियों की आधे से अधिक प्रजातियां यहां हैं।

उस पर देश-विदेश से मेहमान परिंदे भी उत्तराखंड की सरजमीं पर खूब आते हैं। इस परिदृष्य के बीच कचोटने वाली बात यह है कि परिस्थितियां अनुकूल होने के बावजूद यहां पक्षी अवलोकन अब तक स्वरोजगार का बड़ा माध्यम नहीं बन पाया है।

वह भी तब, जबकि यह व्यापक संभावनाओं वाला क्षेत्र है। सालभर में पक्षी अवलोकन के छिटपुट कैंप अवश्य होते हैं, लेकिन इनमें निरंतरता नहीं है। असल में पक्षी अवलोकन वाले लगभग सभी स्थल वन क्षेत्रों में हैं, ऐसे में कदम तो वन विभाग को ही उठाने होंगे। प्रदेशभर में चिह्नित 90 से अधिक ऐसे स्थलों में पक्षी अवलोकन के कैंप समय-समय पर होते रहें तो यह लाभकारी होगा।

बुग्यालों का सर्वे कराना आवश्यक

मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड में स्थित बुग्याल अपनी सुंदरता के लिए विश्वविख्यात हैं। फिर चाहे वह चमोली जिले का वेदनी बुग्याल हो या उत्तरकाशी, रुदप्रयाग, बागेश्वर, पिथौरागढ़ जिलों के उच्च हिमालयी क्षेत्र के बुग्याल, सभी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं।

दरअसल, बुग्याल मखमली हरी घास के मैदान हैं, जो हिम रेखा और वृक्ष रेखा के मध्य पाए जाते हैं। प्रकृति की अनुपम देन कहे जाने वाले इन बुग्यालों पर खतरा कम नहीं है। ये औषधीय जड़ी-बूटियों का भी भंडार हैं। मानवीय हस्तक्षेप से बुग्यालों में पाई जाने वाली प्रजातियों पर संकट मंडरा रहा है तो अतिवृष्टि व भूस्खलन से भी ये कराह रहे हैं।

यद्यपि, बुग्यालों के संरक्षण के लिए क्षतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) से कदम उठाए जाते हैं, लेकिन इनके सार्थक परिणाम की प्रतीक्षा है। ऐसे में आवश्यक है कि पहले सभी बुग्यालों का सर्वे करा लिया जाए और फिर उपराचात्मक कार्य किए जाएं।

गंभीरता से उठाने होंगे कदम

जरा सोचिये, उस मां पर क्या बीतती होगी, जिसके कलेजे के टुकड़े को बाघ या गुलदार ने निशाना बना लिया हो। उस पर परिवार पर क्या बीतेगी, जिसके कमाऊ पूत को वन्यजीवों ने छीन लिया हो और उस किसान की दशा क्या होगी, जिसकी खेतों में खड़ी फसल जंगली जानवरों ने नष्ट कर दी हो।

71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाला उत्तराखंड इस द्वंद्व से जूझ रहा है, लेकिन समाधान अब तक नहीं निकला है। अब तो मानव-वन्यजीव संघर्ष चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है। यद्यपि, इस बीच सरकार ने वन्यजीवों के हमलों में मानव क्षति अथवा घायल होने पर मुआवजा राशि में बढ़ोतरी का एलान किया है, लेकिन असल आवश्यकता तो संघर्ष की रोकथाम को गंभीरता से कदम उठाने की है।

यह टकराव किस तरह से रुके और किस तरह से मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी हद में सुरक्षित रहें, इसके लिए ठोस कार्ययोजना तैयार कर धरातल पर उतारनी होगी।

बीएमसी को हक का इंतजार

यह किसी से छिपा नहीं है कि जैव संसाधनों के मामले में समूचा उत्तराखंड बेहद धनी है। यहां पाई जाने वाली औषधीय महत्व की जड़ी-बूटियों का बड़े पैमाने पर व्यवसायिक उपयोग भी हो रहा है, लेकिन इन जैव संसाधनों का संरक्षण करने वालों के हाथ अभी तक रीते हैं।

यद्यपि, जैवविविधता अधिनियम में प्रविधान है कि जैव संसाधनों का व्यवसायिक उपयोग करने वाली सभी कंपनियां, संस्थाएं व लोग अपने सालाना लाभांश में से कुछ हिस्सेदारी जैवविविधता प्रबंधन समितियों (बीएमसी) को देंगे। वे जैवविविधता बोर्ड के पास यह राशि जमा भी करा रहे हैं, लेकिन बीएमसी को अपने इस हक की अभी तक प्रतीक्षा है।

स्थिति ये हो चली है कि अभी इसके वितरण का कोई फार्मूला ही तय नहीं हो पाया है। ऐसे में तंत्र की कार्यशैली पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द फार्मूला तय कर बीएमसी को उनका हक देने की प्रक्रिया शुरू होगी।

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